7) सत्संगति


सत्संगति शब्द दो शब्दों के मेल से बना हुआ है।  सत्संगति अर्थात् सच्चे या अच्छे मनुष्यों की संगति में यह बातंे सत्य हैं, कि मनुष्य अपने समाज में अच्छी और बुरी दोनों ही प्रकार की  संगति को प्राप्त करता है यदि वह अच्छी संगति में रहता है,और वह ऐसी संगति का लाभ उठाता है, तो इस संगति से उसे लाभ और कल्याण की प्राप्ति होती है। अन्यथा वह दर-दर की ठोकरें खाता फ्रिफरता हुआ जीवन भरे सुख से वंचित हो जाता है। जबकि सत्संगति के प्रभाव से शठ भी सुध्र जाते हैं। फ्जैसे पारस पत्थर से लोहा सोना बन जाता है।य्
शठ सुध्रहिं सत्संगति पाई।

पारस परसि कुधतु सुहाई।।
सत्संगति का लाभ उठाकर मनुष्य न केवल अपना लाभ उठाता है अपितु वह अपनी जाति, समाज और राष्ट्र को पूरी तरह से लाभान्वित करता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसी दास जी नेे सत्संगति की महिमा का चित्राण बहुत ही प्रभावशाली शब्दों के द्वारा किया है।

सुजन समाज सकल गुन खानी, करऊँ प्रणाम सप्रेम नुबानो।

साध्ु चरित शुभ चरित कपासू, निरस विसद गुणमय फ्रफलजासून।।

मुद मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथ राजू ।

सुनि आचरज करै जनि कोई, सत्संगति महिमा नहिं गोई।।

कहने का तात्पर्य यह है कि सत्संगति साध्ुओं की संगति होती है जो सब प्रकार से वन्दनीय और प्रार्थनीय यह साध्ु संगति तो सभी प्रकार के गुणों की खान होती है जो अवगुणों को सदगुणों में बदन डालती है इसीलिए साध्ु संगति अर्थात् सत्संगति के महत्व के मन को सुन करके और समझकर के आश्चर्य चकित नहीं होना चाहिए।सत्संगति की प्राप्ति हमें दो प्रकार से होती है प्रथम साध्ु और द्वितीय सज्जन पुरुषों के साथ रहने से और दूसरी सत्संगति हमें पुस्तकों और साध्ुओं के आदर्शो से। ये दोंनो ही प्रकार की सत्संगति हमें विभिन्न प्रकार के विवेक और सद्ज्ञान को प्रदान करके जीवन मुक्त के साध्नों का पथ प्रदर्शन करती हुई सांसारिकता के अज्ञान में डूबते हुए व्यक्तियों को भी उपकार के मार्ग की ओर प्रशस्त करती है इसीलिए सत्संगति के विषय में यह सच ही कहा गया है कि वह अज्ञान से अज्ञान और जड़ से जड़ पदार्थों को भी ज्ञानवान और चेतन शील बनाती हुई, अपना अनुप्रम प्रभाव दिखाती है इस तथ्य को हम भली भाँति सोच विचार सकते हैं। संगति से मनुष्य को केवल लाभ ही लाभ प्राप्त होता है इस तथ्य की पुष्टि हमारे नीति के श्लोक में अच्छी तरह से व्याख्या करते हुए दिखाई गई है:-

जाड्यं ध्यिो हरति सिंचति वचि सत्यम्

मानोन्नति दिशति पापमपा करोति।

चेतः प्रसादयति दीक्षु तनोति कीर्तिम्

सत्संगति कथय किं न करोति पुंसाम्।


अर्थात् सत्संगति मुर्खता ;अज्ञानताद्धका हरण करके उसकी वाणी में सत्यता को प्रविष्ट करती है। मन की उन्नति करके दिशाओं में इसकी कीर्ति पताका फ्रफैलाती है। चेतना को बढ़ती है। कहने का तात्पर्य यह है कि सत्संगति मनुष्य का क्या क्या भला नहीं करती है? अर्थात भी बुराई नहीं कर सकता है। रहीम दास जी ने ठीक ही लिखा है
दोहा- जो रहिम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग।

चंदन विष व्याप्त नहीं, लपेटत रहत भुजंग।।
कबीर दास ने कहा है कि सत्संगति करने वाला व्यक्ति दूसरों की भलाई करता है जबकि कुसंगति करने वाला व्यक्ति केवल बुराई चाहता है।
दोहा- कबिरा संगति साध्ु की, हरै और व्याध्।ि

संगति बुरी असाध्ु की,आठो पहर उपाध्।ि।
इसलिए हमें अच्छी संगति करनी चाहिए। ;जैसा संग वैसा रंगद्ध

नाम - सूर्यकान्त मिश्र 
कक्षा- पूर्व मध्यमा द्वितीय वर्ष

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